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राहुल गांधी अब नादान परिंदे नहीं हैं…

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प्रकाश भटनागर

अमेरिका में राहुल के कहे और किए के बाद अब राहुल गांधी को ‘नादान परिंदे’ वाली छवि से जोड़कर देखना बड़ी भूल होगी। राजनीतिक लाभ होता देख राहुल अब कुछ भी कर और कह सकते हैं। इसका देश और समाज पर क्या असर होना है, यह अब राहुल और उनके रणनीतिकारों के सोचने का विषय नहीं रह गया है। राहुल के कहे के खतरों को अब खुद देश को समझना और भोगना होगा। जातिगत जनगणना और आरक्षण को लेकर भाजपा को कटघरे में खड़ा करने की सफलता का स्वाद कांग्रेस और उसके सहयोगी चख चुके हैं। वामपंथिों के प्रभाव में राहुल का प्रयोग लोकसभा चुनाव में काफी हद तक सफल रहा। वह भी इस संदर्भ में कि राहुल देश के बहुसंख्यक समाज के बीच निर्णायक विभाजन रेखा खींचने में सफल रहे।

हांडी के एक चावल की तरह उत्तरप्रदेश को लीजिए। राहुल के इस प्रयोग का असर यह कि जातिगत सियासत के इस गढ़ में भाजपा को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ गया। इसके बाद से जाति का विवाद जैसे राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया है और राहुल तो जैसे सोते-जागते ‘कौन जात बा’ का रट्टा ही लगाने लग गए हैं। तो जब एक बार यह हुआ कि आप बहुसंख्यकों को विभाजित करने में सफल रहे तो दूसरी बार यह कोशिश भी कर ली गई है कि देश को किस तरह गृह युद्ध वाली स्थिति में लाने के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम एक और प्रयोग में धकेल दिया जाए।

अमेरिका में राहुल जब यह कहते हैं कि भारत के सिखों को उनके धार्मिक प्रतीकों के साथ धर्म स्थलों पर जाने नहीं दिया जाता। तब इसे मात्र उनकी अज्ञानता का परिचय मानकर खारिज नहीं किया जा सकता। यह बेहद सोचा-समझा कदम है। प्रयास (‘साजिश’ कहना अधिक ठीक लगता है) यह कि सिख समुदाय को बरगलाया जा सके। इससे पहले तक यकीनन राहुल बे-सिर पैर की बातें करने में महारत रखते थे, लेकिन अब वह एक खतरनाक एजेंडे को आगे बढ़ाने के काम में जुट गए हैं।

सभी जानते हैं कि देश में सिखों के साथ इस तरह के भेदभाव वाली कोई स्थिति नहीं है। हां, एक बार यह स्थिति बनाई गई थी और उसके पीछे उसी कांग्रेस का ही हाथ था, जिसका नेतृत्व आज वे खुद कर रहे हैं। इंदिरा गांधी की हत्या उनके दो सिख सुरक्षाकर्मिययों ने की थी। लेकिन कांग्रेस ने देश-भर में हत्यारों को ‘सिख’ बताकर प्रचारित किया। नतीजा यह कि 1984 के दंगों में सिख समुदाय के करीब चार हजार लोगों की जान ले ली गई। यह वही सामूहिक नरसंहार था, जिसके पक्ष में राहुल के पिता राजीव गांधी ने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो जमीन कांपती ही है। यह वही आतंकवाद था, जिसकी जड़ में कांग्रेस थी। देश भर में सिखों पर हुए अत्याचार के पीछे तब कांग्रेस के ही नेता थे।

पंजाब में अकाली राजनीति को कमजोर करने के लिए किस तरह इंदिरा जी के समय ही सिखों के एक वर्ग को चरमपंथ से लेकर आतंकवाद तक के लिए तैयार किया गया। यह किसी से भी छिपा नहीं है। सभी जानते हैं कि पंजाब का खालिस्तान वाला आंदोलन इसलिए आतंकवाद तक पहुंच गया कि इंदिरा जी ने उस पर समय रहते काबू पाने की कोई कोशिश नहीं की। वो कहते हैं ना कि कोई कुटिल डॉक्टर किसी फुंसी के इलाज में रूचि नहीं लेता। जब फुंसी बढ़कर नासूर का रूप ले लें, तब वह इलाज करता है। ताकि एक जटिल बीमारी से निजात दिलाने वाली छवि का लाभ उठा सके। इंदिरा जी ने भी यही किया और पंजाब में अलग राज्य की बात किसी नासूर की तरह सारे देश का सिर दर्द बन गयी। जब यह पर्याप्त रूप से हो गया, तब इंदिरा जी ने स्वर्ण मंदिर में सेना को भेजकर यह संदेश देने की कोशिश की कि वह बड़े संकट में कड़े निर्णय लेने की क्षमता रखती हैं।

अब एक सवाल। क्या वाकई सिख समुदाय को राहुल गांधी सहित किसी भी अन्य राजनीतिक व्यक्ति या दल के रहमो-करम की जरूरत है। यह समुदाय मुगल काल में अमानुषिक अत्याचारों का शिकार हुआ। अंग्रेजों ने जाते-जाते जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया और इसी के आसपास हुए देश विभाजन में न जाने कितने ही सिखों की जान ले ली गई। फिर 1984 में सिखों ने जो झेला, वह तो ऊपर बताया ही जा चुका है। तो जो समुदाय अतीत से लेकर अब तक के अनाचारों के बाद भी अपनी एकजुटता, देश के जान देने की क्षमता और जीवटता के दम पर निरंतर आगे बढ़ रहा है, उस समुदाय के लिए एक निरी झूठी सहानुभूति जताकर राहुल सिखों के गौरवमयी अतीत तथा आज को कलंकित करने का काम भी कर रहे हैं।

ये हालात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के लिए बहुत बड़ी चुनौती हैं। जातिगत राजनीति की बात कर राहुल सामाजिक समरसता के लिए संघ की कोशिशों को भारी नुकसान पहुंचा चुके हैं। तो अब भाजपा को यह करना होगा कि वह दलित और जनजाति समुदाय के बीच अपने विश्वास को स्थापित करने के लिए नए कदम उठाए। बेशक राष्ट्रपति पद सहित इक्का-दुक्का राज्यों में इसी वर्ग के उप मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने कुछ वाहवाही हासिल की है, लेकिन यह दल अब तक आम दलितों के दिल तक नहीं पहुंच सका है, खासकर अनुसूचित जातियां अब भी इसकी नीयत पर शक कर रही हैं।

शायद इसकी बड़ी वजह यह कि इस पार्टी ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों को जिस तरह का राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया, वह निर्णय लेने और लागू करने के मामलों में किसी बड़ी शक्ति का परिचायक नहीं बन सका है। फिर समस्या यह भी कि भाजपा ने एससी और एसटी के मुकाबले पिछड़ा वर्ग को बहुत अधिक तवज्जो देकर उनका खासा समर्थन हासिल भी कर लिया है। पिछड़ी जातियों की भाजपा की सत्ता में खासी ताकत है। इन हालात के बीच जब राहुल गांधी भाजपा की ऐसी कमजोरी का लाभ लेने में सफल हो जाते हैं तो फिर संघ सहित भाजपा के लिए भी यह चुनौती और जटिल हो जाती है।

सिख समुदाय तो खैर जागरूक और समझदार है। इससे जुड़े कुछ लोग अपनी राजनीतिक निष्ठा या आवश्यकताओं के चलते राहुल के कथन का विरोध न करें, लेकिन शेष लोग जानते ही हैं कि राहुल की इन बातों में कोई दम नहीं है। लेकिन सवाल यह कि भाजपा कब जागरूक होकर इस समझ का परिचय देगी कि उसकी जिन कमजोर नीतियों को राहुल ने अपनी ताकत बनाया, वह देश को जातीय संघर्ष की आग में झोंकने की भयावह सामर्थ्य रखता है? राहुल जो कह और कर रहे हैं, उसके विरुद्ध देश को तो चेतना ही होगा, लेकिन भाजपा को भी इस चेतना का प्रसार तेजी से करना होगा कि वह अपने जातिगत गणित की खामियों को दुरुस्त कर लें। जाहिर है इस भरोसे को जीतने का एक बड़ा तरीका यही हो सकता है कि इन वर्गों से पार्टी और सरकारों में नीतिगत और निर्णायक मंडल में इन तबकों का भी खासा प्रतिनिधित्व हो। इसकी गूंज नीचे जमीन तक महसूस होनी चाहिए।

मोहब्बत की दुकान को अब नफरत की दुकान में बदल चुके राहुल अब ‘नादान परिंदे’ नहीं हैं। वह सत्ता के लिए शिकारी पक्षी में तब्दील हो गए हैं। भाजपा को भी चाहिए कि वह ‘विश्व की सबसे बड़ी पार्टी’ वाले घोसले से बाहर झांके और देखे कि धूप कितनी अधिक चढ़ चुकी है।

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