ये बौखलाहट कृष्णन की…

एक ही डंडी से सभी को हांकने को नादानी कहें या मनमानी, इसका नतीजा गलत ही होता है। ऐसी ही महागलती कांग्रेस के बड़बोले नेता आचार्य प्रमोद कृष्णन कर बैठे हैं। उन्होंने राम मंदिर के लिए धन संग्रह कर रहे सभी लोगों को चोर करार दे दिया है। दिग्विजय सिंह के संदेह सलीकेदार थे, कृष्णन का मामला सियासत की पिच पर बचपने से भरा हिट विकेट कर देने जैसा है। क्योंकि राम मंदिर के लिए धन संग्रह के काम में तो खुद कांग्रेस के लोग भी जुड़े हुए हैं। मध्यप्रदेश में कृष्णन की पार्टी में पूर्व मंत्री पीसी शर्मा सहित कांग्रेस के कई नेता यह काम कर रहे हैं। कमलनाथ ने राम मंदिर के निर्माण का न केवल समर्थन किया, बल्कि उसके लिए चांदी की ईंटें दान देने की घोषणा भी नाथ के खाते में दर्ज है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने दो दिन पहले ही मंदिर के लिए एक लाख रुपए से अधिक का दान दिया है। भले ही इसके लिए उन्होंने रास्ता व्हाया प्रधानमंत्री अपनाया हो। ऐसे में चंदा लेने वालों को चोर कहकर कृष्णन ने अपनी ही पार्टी के कई लोगों को भी सांसत में डाल दिया हैं।
किसी व्यक्ति/संस्था विशेष से लगातार हार बौखलाहट का सबब बन जाती है। फिर जब पराजय भी बेहद शर्मनाक स्तर वाली हो तो मामला बौखलाहट से आगे बौरा देने तक पहुँच जाता है। यही कांग्रेस और प्रमोद जैसे उसके नेताओं के साथ हो रहा है। भाजपा के हाथों लगातार मिल रही शिकस्त-दर-शिकस्त ने इस दल को उन्मादी वाली फितरत से भर दिया है। मामला संगीन हो चुका है। इतना कि राहुल गांधी और कृष्णन के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं रह जाता है। भाजपा से खुन्नस निकालने की रौ में गांधी कहीं भी और कुछ भी कह जाते हैं। कृष्णन का ताजा कथन गांधी के बीजेपी के लिए गुस्से को थोड़ा और अधिक तड़का लगाने वाला ही है। बाकी आरोप के पीछे दोनों की अपने ही दल की भद पिटवाने जैसी रोचक नाकामी साफ देखी जा सकती है।
पक्ष और विपक्ष के बीच यदि अंधे विरोध वाली जंग शुरू हो जाए तो फिर विवाद के घटियापन की कोई सीमा-रेखा नहीं बच पाती है। देश की राजनीति में इसके अनगिनत दुर्भाग्यजनक परिणाम देखने को मिल रहे हैं। वो दौर हवा हुआ, जब किसी रचनात्मक काम या सफलता के लिए विपक्ष सदन के भीतर भी सत्ता पक्ष की पीठ थपथपाता था। अब हालात बदल चुके हैं। इसलिए इस आपसी व्यवहार में शुचिता पूरी तरह तिरोहित हो चुकी है। अब तो अदालत को किसी नेता को ‘चोर’ शब्द के लिए गलत और सही के बीच फर्क समझाना पड़ता है। यूपी में रेप की वारदात के भी राजनीतिकरण पर कोर्ट को किसी नेता के जिस्म में लोहा उतारने जैसी सख्त टिप्पणी करना पड़ जाती है। ऐसे वातावरण के बीच किसी से भी मर्यादित व्यवहार की उम्मीद करना बेमानी है, लेकिन उस मूर्खता का क्या किया जाए, जिसके तहत कृष्णन जैसे लोग विरोध के जूनून में अपनी ही पार्टी को भी मुसीबत में डाल दे रहे हैं? कांग्रेस वैसे ही लंबे समय से वैचारिक भ्रम की शिकार है। ‘भ्रम’ के आगे से ‘विचार’ को यदि हटा ही दें तो और ज्यादा बेहतर है। अरसा हो गया कांग्रेसियों और कांग्रेस को विचार शून्य हुए। अब वे केवल कम्युनिस्टों के सिखाए पढाएं कांग्रेसी ही ज्यादा नजर आते हैं।