नज़रिया

आपका जीवंत मौन मेरी समस्या नहीं…

आप स्वयं के लिए सत्य से छिटकने हेतु स्वतंत्र हैं, किन्तु उनका क्या, जो आपको पढ़ते हैं? उसी आधार पर स्वयं के विचार गढ़ते हैं? आप कैसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) के कांग्रेस (Congress) से अलग होने वाले प्रसंग में मूल अपराधी का तथ्यों के साथ उल्लेख नहीं कर पाते हैं? कैसे आप की लेखनी को ये बताते हुए काठ मार जाता है कि शहीदे-आजम भगत सिंह (Bhagat Singh) की फांसी रोकने में सक्षम किसी सौदेबाज वकील ने अक्रिय भूमिका ही निभायी? क्यों अभिव्यक्ति की खुलकर बहती बयार के इस समय में भी आप का हाथ यह लिखने में काँप जाता है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल (Sardar Vallabh Bhai Patel) की सर्व-स्वीकार्यता की पीठ में किसने छुरा घोंपा था और किसने अहिंसा के नाम पर हिन्दू समाज को वैचारिक रूप से कमजोर करने के षड़यंत्र को न सिर्फ रचा, बल्कि उसे सफल भी बनाया? वो कौन था, जिसने नाथूराम गोड़से (Nathuram Godse) को इस बात के लिए उकसावा दिया कि वह मोहम्मद अली जिन्ना की बजाय अपनी बन्दूक का रुख किसी और तरफ कर ले?
मैं खुलकर लिखूंगा कि आशय से लेकर सदाशय तक के दृष्टिकोण से मैं मोहनदास करमचंद गांधी (Mohan Das Karamchand Gandhi) की ही बात कर रहा हूँ। यदि हम प्रायोजित इतिहास का मल ढोने में ही अपना सौभाग्य समझें तो बात अलग है। किन्तु मुझे अपने कंधे पर ऐसे मल की मलिनता तनिक भी स्वीकार्य नहीं है। क्योंकि इस मलिनता का बोझ ही हमें विवश करता रहा कि प्रातः स्मरणीय जीजा बाई, रानी लक्ष्मीबाई से लेकर झलकारी देवी, वीरांगना महारानी अवंतिका तथा मां अहिल्या देवी से अधिक यशोगान अल्बानिया से आयी एक धर्म परिवर्तन कराने वाली का करें। ये मलिनता ही इस दुर्गन्धपूर्ण कथ्य को तथ्य के रूप में प्रचारित करती रही कि असंख्य बलिदानों के बाद भी हम बिन खडग बिना ढाल के ही स्वतंत्र हो गए। हमने एक राजघाट गढ़कर इस सत्य को जबरिया समाधि दे दी कि वो राजघाट वाले उस व्यक्ति के राजपाट के लिए हजारों निर्दोष हिन्दुओं को विभाजन की चिता में ज़िंदा जला गए, जिस व्यक्ति की कमजोरी आज भी चीन के आधिपत्य वाले तिब्बत, पकिस्तान के अनधिकृत वाले कश्मीर तथा चीन द्वारा हड़पी गयी अरुणाचल प्रदेश की हमारी भूमि के रूप में हमें असीम राष्ट्रीय दर्द तथा शर्म से भर देती है।
आखिर हमारी कलम का सिर खुद हमारे ही हाथों क़लम क्यों हो जाता है? क्यों हम नहीं लिख पाते की श्री श्यामाप्रसाद मुख़र्जी (Shyama Prasad Mukherji) के हत्यारों को अतीत की कब्र से बाहर निकालकर इस अपराध के लिए दण्डित किया जाए? क्यों हम खुलकर यह नहीं कह पाते हैं कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस को निर्वासित जीवन जीने के लिए विवश करने वालों को इस देश के गौरवमयी इतिहास से खदेड़ दिया जाना चाहिए? कौन हमें डराता है कि आज भी हम चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी करने वालों के बारे में बात न कर सकें? किसकी वजह से ये वैचारिक नपुंसकता कायम है कि हम शहीद ऊधम सिंह की बहादुरी की आलोचना करने वाले मोहनदास करमचंद गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) की इस करतूत का उल्लेख भी आसानी से नहीं कर सकते हैं?
मन को वमन वाली गंदी अनुभूति से भर देते हैं ऐसे अनेक प्रसंग। हिन्दू देवियों का नग्न चित्रण करने वाले एक सफेदपोश की आलोचना के लिए हम आज भी शालीन शब्द तलाशते हैं। भगवान राम तथा सीता जी को आपस में भाई-बहन बताने वाले सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट के लिए अब तक हमारा क्रोध ‘दुर्भाग्यजनक सोच’ जैसे घोर कमजोर उपालंभ तक ही विस्तार पा सका है। कांग्रेस ने राम के अस्तित्व को काल्पनिक बताया। ममता बनर्जी ने लगातार दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन में बाधा डाली। मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों को गोलियों से भून देने के अपने फैसले पर प्रसन्नता प्रकट की। लालू प्रसाद यादव ने गोधरा की ट्रेन में कारसेवकों के नरसंहार को आत्महत्या बताने की जुर्रत कर दी। लेकिन हम हैं कि छद्म प्रगतिशीलता की चादर में मुंह ढक कर इस सब पर मौन धारण किये हुए हैं। वस्तुतः हम इस तरह प्रगतिशील नहीं, बल्कि अपने सर्वांग के अधोपतन के लिए गतिशील हैं। आप डर-डर के बच-बच के बोलिए। मेरी समस्या आपका जीवंत मौन नहीं, बल्कि वह मुर्दा अभिव्यक्ति है, जो आपके चलते मुझे अपने आसपास सड़ांध मारती लाशों की उपस्थित का लिजलिजा आभास कराती है। किन्तु मैं चुप नहीं रहूँगा।

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