विश्लेषण

ममता की चोटों के बहाने लोकतंत्र को घायल न करें

ललित गर्ग

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी घायल हुईं, चुनावी महासंग्राम में यह घटना और इस घटना पर जिस तरह का माहौल बना, वह पूरा प्रकरण चिंताजनक है, लोकतंत्र की मर्यादाओं के प्रतिकूल है। शुरुआती रिपोर्टों के मुताबिक उनके पांव, कंधे और गर्दन में चोटें आई हैं। ममता का चोटिल होना विधानसभा चुनाव का संभवतः एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। विभिन्न विपक्षी दलों द्वारा ममता के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करने के बजाय इस घटना पर भी जमकर राजनीति करना दुर्भाग्यपूर्ण है। तृणमूल कांग्रेस भी अपने नेता से जुड़ी इस घटना पर सहानुभूति पाने एवं राजनीति समीकरणों को बदलने के लिये सारे प्रयत्न कर रही है, जो राजनीति गिरावट का पर्याय है। कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा ने जरूर यह औपचारिकता निभाई, लेकिन पश्चिम बंगाल चुनावों में पार्टी की अगुआई कर रहे अधीर रंजन चैधरी ने साफ-साफ कहा कि ममता ने लोगों की सहानुभूति पाने के लिए यह पाखंड रचा है। इस तरह के प्रकरण में सबसे ज्यादा परेशान एवं चिन्तित करने वाली बात है, कि चुनावी लड़ाई को युद्ध की तरह लड़ने के आदी होते जा रहे हमारे राजनीतिक दलों में पारस्परिक शिष्टाचार, संवेदना एवं सौहार्द की शून्यता पांव पसार रही है।

ममता का शरीर ही चोटिल नहीं हुआ हैं, लोकतंत्र भी घायल हुआ हैं और जहां चुनाव हो रहे हैं वहां लोकतंत्र के मूल्य भी ध्वस्त होते हुए दिखाई दे रहे हैं। ममता का योगदान क्या रहा, इसमें विवाद हो सकता है पर यह निर्विवाद है कि उनका घायल होना एवं इस घटना का राजनीतिक नफा-नुकसान के लिये इस्तेमाल किया जाना भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए अशुभ संकेत है। एक अच्छा भारतीय होना भी कितना खतरे का हो गया और जिस राष्ट्र एवं समाज में यह स्थिति निचली सतह तक पहुंच जाती है, वह घोर अंधेरों का संकेत है। हम राजनीतिक स्वार्थो एवं वोट की राजनीति के आगे असहाय बन उसकी कीमत चुका रहे हैं और लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं।

दिलचस्प बात यह कि खुद ममता बनर्जी का व्यवहार भी ऐसे मामलों में कुछ खास प्रेरक एवं अनूठा नहीं रहा है। कुछ दिनों पहले पश्चिम बंगाल के ही दक्षिण 24 परगना जिले में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर पथराव की खबर आई थी तो ममता बनर्जी ने उसकी सत्यता पर इसी तरह सवाल उठाते हुए संदेह जताया था कि हमले की फर्जी शिकायत की जा रही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह सर्वथा नई परिस्थिति, विडम्बनापूर्ण स्थिति है। चुनावी लड़ाइयां तो हमेशा से होती रही हैं। इन लड़ाइयों में दांव पर सत्ता भी हमेशा लगी होती है लेकिन सिद्धान्तों एवं मूल्यों का दांव पर लगना चिन्तित करता है। आज की हमारी राजनीतिक संकीर्णता, ओछेपन और हद दर्जे की स्वार्थप्रियता लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करने का बड़ा कारण बन रही है।

किसी एक वर्ग के प्रति द्वेष और किसी एक के प्रति श्रेष्ठ भाव एक मानसिकता है और मानसिकता विचारधारा नहीं बन सकती/नहीं बननी चाहिए। मानसिकता की राजनीति जिस टेªक पर चल पड़ी है, क्या वह हमें अखण्डता की ओर ले जा रही है? क्या वह हमें उस लक्ष्य की ओर ले जा रही है जो लक्ष्य हमारे राष्ट्र के उन कर्णधारों ने निर्धारित किया था, जिनका स्वतंत्रता की लड़ाई में जीवनदानी योगदान और कुर्बानियों से इतिहास स्वर्णमण्डित है। इस भटकाव का लक्ष्य क्या है? इन स्वार्थी, सत्तालोलुप राजनीति एवं अराजकता का उद्देश्य क्या है? जबकि कोई भी साध्य शुद्ध साधन के बिना प्राप्त नहीं होता। जो मानसिकता पनपी है, उसके लिए राजनैतिक दल सत्ता हथियाने के माध्यम बन चुके हैं। और सत्ता में पहुंचने का मकसद किन्हीं विशिष्ट सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक मूल्यों को स्थापित करना नहीं, अमीर बनना एवं अपने राजनीतिक स्वार्थों की रोटियां सेकना है। सौ साल पहले कुछ घोड़े और तलवारें जमा कर लेने वाले कुछ दुस्साहसी लोग भौगोलिक सीमाओं को जीतकर राजा बन जाते थे। क्या हम उसी युग की ओर तो नहीं लौट रहे हैं?

ममता को लगे घावों की निष्पक्षता से जांच होनी चाहिए ताकि स्पष्ट हो सके कि क्या हुआ और कैसे हुआ। इसके साथ ही ममता बनर्जी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना प. बंगाल के चुनाव से किसी भी रूप में जुड़े हर राजनेता को बिना किसी राजनीतिक स्वार्थ के करनी चाहिए। ममता के घायल होने की खबर आते ही उनकी हालत को लेकर जानकारी हासिल करने और उनकी सुरक्षा को लेकर चिंता जताने के बजाय चुनाव में उन्हें सबसे ज्यादा आक्रामक होकर चुनौती दे रही पार्टी के छोटे-बड़े तमाम नेताओं ने यह संदेह जताना शुरू कर दिया कि ममता ने हमले की फर्जी कहानी रची है। इस तरह के बयान एवं औछी राजनीति पर विराम लगना चाहिए। चुनावी हार-जीत को राजनीतिक सिद्धान्तों एवं मूल्यों से ऊपर रखने की इस प्रवृत्ति पर अगर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो आम लोगों में दलीय तनाव बहुत बढ़ जाएगा और देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं खतरे में पड़ जाएंगी। गांव से लेकर शहर तक और पहाड़ से लेकर सागर तक की राजनीति ने सौहार्द, संवेदना और भाईचारे का संदेश देना बन्द कर दिया है। भारतीयता की सहज संवेदना को पक्षाघात क्यों हो गया? इससे पूर्व कि यह धुआं-धुआं हो, इसमें रक्त संचार करना होगा। राजनीति में संवेदनहीनता एक त्रासदी है, विडम्बना है। जबकि करुणा, सौहार्द, संवेदना के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

पश्चिम बंगाल के चुनाव न केवल आक्रामक है बल्कि हिंसक भी हो गये हैं। मतदाताओं को डराने-धमकाने-लुभाने के साथ-साथ स्वयं प्रत्याशियों का डरा होना, लोकतंत्र के लिये एक बड़ी चुनौती हैं। एक जमाना था जब राजा-महाराजा अपनी रिसायतों के राज की सुरक्षा और विस्तार तलवार के बूते पर करते थे। लगता है लोकतंत्र के मताधिकार की ओट में हम उस हथियार/तलवार के युग में पुनः प्रवेश कर रहे हैं। प्रत्याशियों का चयन करने में भी सभी राजनैतिक दलों ने आदर्श को उठाकर अलग रख दिया था। मीडिया के सम्पादक भी चश्मा लगाए हुए हैं। चश्मा लगाएं पर कांच रंगीन न हो। लगता है सभी स्तरों पर प्रतिशोध का सिक्का क्रोध की जमीन पर गिरकर झनझना उठा है। राष्ट्रीय मुख्यधारा को दर्शाने वाले सबसे सजग मीडिया के लोग ही अगर निष्पक्ष नहीं रहंगे तो जनता का तीसरा नेत्र कौन खोलेगा। कौन जगाएगा ”सिक्स्थ सैंस“ को ।

ममता सरकार अपने पूरे कार्यकाल में मुस्लिम तुष्टीकरण में लगी रही, जिसके जवाब में भाजपा ‘हिंदू कार्ड’ खेल रही है। मगर यह रणनीति शायद ही फायदेमंद साबित हो क्योंकि यह तो जोड़ने नहीं, तोड़ने की राजनीति है, जबकि पश्चिम बंगाल का समाज धर्मनिरपेक्ष रहा है, जोड़ने वाला रहा है। यहां हिंदू और मुस्लिम मतदाताओं की सोच बेशक अलग-अलग है, लेकिन ये बिहार या उत्तर प्रदेश की तरह किसी खास दल से बंधे हुए नहीं हैं। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जिन 18 सीटों पर कामयाबी मिली थी, उनमें से 12 सीटें जंगल महल और नॉर्थ बंगाल से आई थीं, जहां दलितों व वंचितों की बहुतायत है। अब देश ने जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण आधारित राजनीति को भले ही पूरी तरह नहीं नकारा हो, लेकिन ऐसी सोच विकसित होने लगी है, जो लोकतंत्र के लिये शुभ एवं श्रेयस्कर है।

कैसी हो हमारी राजनीति की मुख्यधाराएं? उन्हें तो गंगोत्री की गंगा होना चाहिए, कोलकत्ता की हुगली नहीं। निर्मल, पवित्र, पारदर्शी। गंगा भारत की यज्ञोपवीत है। लेकिन सिर्फ जनेऊ पहनने से ही व्यक्ति पवित्र नहीं हो जाता। जनेऊ की तरह कुछ मर्यादाएं राजनीति के चारों तरफ लपेटनी पड़ती हैं, तब जाकर के वे लोकतंत्र का कवच बनती है। भारतीय राजनीति की मुख्यधाराओं को बनाने व सतत प्रवाहित करने में और असंख्य लोगों को उसमें जोड़ने में अनेक महापुरुषों-राजनीतिक मनीषियों ने खून-पसीना बहाकर इतिहास लिखा है। राजनीतिक मुख्यधाराएं न तो आयात होती है, न निर्यात। और न ही इसकी परिभाषा किसी शास्त्र में लिखी हुई है। हम देश, काल, स्थिति व राष्ट्रहित को देखकर बनाते हैं, जिसमें हमारी संस्कृति, विरासत, लोकतंत्र के मूल्य एवं सिद्धान्त सांस ले सके। उसको शब्दों का नहीं, आचरण का स्वर दें। पश्चिम बंगाल के चुनावों में राजनीतिक स्वार्थ नहीं, सिद्धान्त एवं मूल्यों को बल मिले।

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