शख्सियत

नरगिस … मैं तमाम रात जाग ही तो रहा हूं

‘नरगिस’ (Nargis) के नाम से मशहूर फातिमा रशीद यदि आज भी हमारे बीच होती, तो जीवन के नब्बे से अधिक बसंत उनकी आंखों के सामने से गुजर चुके होते। उनके आंचल में गिनती से परे वाले उन बसंतों की चिरस्थायी बहार भी रहती, जो विरले ही किसी को नसीब होते हैं। वह बसंत जो नरगिस के बाद वाली तमाम अभिनेत्रियों की इच्छा के रूप में पैदा होता रहा। रुपहले पर्दे की न जाने कितनी तारिकाओं ने यही ख्वाहिश जाहिर की कि वे ‘मदर इंडिया’ (Mother India) वाली नरगिस वाला एक अदद रोल चाहती हैं। मुझे यकीन है कि नरगिस की समकक्ष कई अदाकाराओं के भीतर भी यह हूक उठती रही होगी कि मेहबूब खान ने क्यों नहीं उन्हें राधा के पात्र हेतु मुफीद पाया?
नरगिस के अभिनय की खासियत यह रही कि उन्होंने औसत वाले तत्व को भी अपने पक्ष में अवसर बना लिया। इसे अन्यथा न लें, किन्तु मदर इंडिया की राधा को अमरता नरगिस के अभिनय ने नहीं, बल्कि इस चरित्र के ‘बेचारगी और स्वयंसिद्धा’ वाले उस दौर के हिसाब से बेहद क्रांतिकारी किरदार ने प्रदान की। निरपेक्ष दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि मदर इंडिया में अभिनय तो केवल और केवल लाला बने कन्हैयालाल (Kanhaiya Lal) ने ही किया था। फिर भी आज तक यह फिल्म तो दूर, इसका चर्चा तक नरगिस के बगैर पूरा नहीं हो सकता है। ‘आग’ से लेकर ‘आह’ ‘बरसात’ ‘श्री 420’ या ‘आवारा’ की सफलताओं में राज कपूर (Raj Kapur) के नवोन्मेषी प्रयोगों का बड़ा योगदान था, लेकिन इनमें से एक भी चित्र से नरगिस को बाहर कर दीजिए, तुरंत ही वह चित्र दम तोड़ देगा। ‘श्री 420’ के ‘मैं न रहूंगी, तुम न रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानियां’ वाले दृश्य में कपूर परिवार के तीन बच्चों को देखकर आप सुखद अहसास से भर उठते हैं। लेकिन इन तीन बच्चों को दिखाने के ठीक पहले जिस नैसर्गिक मुस्कुराहट और आंखों में उतरते दुलार के साथ नरगिस अपनी अंगुली से उन बच्चों की तरफ देखती हैं, वह इस सीन में जान फूंक देता है। इस सीन को नरगिस के बगैर देखिए, आप पाएंगे कि उन तीन बच्चों की मासूमियत एक झटके में अनाथ नजर आने लगेगी।
‘जोगन’ को देखना अद्भुत अहसास है। दिलीप कुमार (Dilip Kumar) की बेजोड़ अभिनय क्षमता पर कोई संदेह नहीं है। इस चित्र में ख़ास बात यह रही कि दिलीप साहब के अभिनय के तमाम बोलते पहलुओं के आगे नरगिस की अपने किरदार के अनुरूप वाली खामोशी कहीं भी कमजोर नहीं दिखती है। बल्कि मुखर अभिव्यक्ति और मौन मनोभावों के इस अद्भुत कंट्रास्ट ने ‘जोगन’ को यादगार बना दिया है।
‘आवारा’ (Awara) के आवारा चरित्र के इस पक्ष की मृत्यु से ठीक पहले वाला फिल्मांकन डरा देता है। राज कपूर भयानक अंजाम के प्रतीकों से घिरे हुए हैं। बचने के लिए मचल रहे हैं। अचानक ये शोर थमता है। वातावरण में ‘ॐ नमः शिवाय’ का कोरस उस सीक्वेंस की भयावहता को कम करना शुरू करता है। लेकिन आप पूरी तरह खुशी से भरी आश्वस्ति के भाव में केवल तब ही डूब पाते हैं, जब स्क्रीन पर मुस्कुराता हुआ चेहरा लेकर दिखती नरगिस राज कपूर का हाथ थामती हैं। यह दृश्य गीता के चरित्र में नरगिस के अभिनय से वह जान फूंकता है कि आप यह ठीक-ठीक कह ही नहीं सकते कि उस मुस्कान को और दो हाथों के उस स्पर्श को मात्र स्नेह कहें, ममत्व से जोड़ें या फिर युवक-युवती की मोहोब्बत के रूप में उसे स्वीकार करें। नरगिस की उस पल की जादुई मुस्कुराहट आपको संबंधों के निर्धारण की जिस भूल-भुलैया में ले जाती है, वह अभिनय की उत्कृष्टता के विलक्षण उदाहरण के रूप में सदैव याद रखा जाएगा।
‘जागते रहो’ चित्र देखने से पहले मुझे केवल यह पता था कि इसके बाद नरगिस और राज कपूर फिर कभी साथ पर्दे पर नहीं आए। फिल्म में नायक पूरे समय प्यास से भटकता रहा और फिल्म देखते समय मैं इस प्यास का शिकार रहा कि कब नरगिस दिखेंगी।नरगिस फिल्म के अंतिम दृश्य में सूरज की पहली किरण की प्रतिनिधि-सी दिखीं। पर्दे पर उनकी ब्लैक एंड व्हाइट उपस्थिति ने उस सुबह की लालिमा को नए रंग प्रदान कर दिए। फिर जब राज कपूर से उनकी निगाहें मिलीं। चेहरे ने एक क्षण में अजनबियत, संशय और हालात को समझने का जो अद्भुत सफर तय किया, वह दृश्य आज भी रोमांचित कर देता है। राज को पानी पिलाती नरगिस के चेहरे की वह सौम्य मुस्कुराहट आपको फिर खींचकर आवारा तक ले जाती है। तब आप पाते हैं कि आपके भीतर का आवारा हौले से कान में कह रहा है, ‘ऐसी किसी एक सुबह के इंतज़ार में जिंदगी की तमाम रातों में जागते रहो।’ सचमुच मैं तमाम रात जाग ही तो रहा हूं। तमाम सुबह नरगिस के अभिनय से अपनी प्यास बुझाने के लिए।

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