जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ ने बुधवार को कहा कि शिक्षा का अधिकार कानून अदूरदर्शिता का सटीक उदाहरण है। योजनाओं को समग्रता से नहीं देखने पर यह जुमला बनकर रह जाएंगी। जब ऐसे मामले अदालतों में आते हैं, तो सरकार बजट की कमी का हवाला देती है।
नई दिल्ली। कल्याणकारी योजनाएं या कानून लाने से पहले सरकारों को राज्य के खजाने पर पड़ने वाले वित्तीय प्रभाव का आकलन करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी एक मामले में सुनवाई के दौरान केन्द्र सरकार पर की। कोर्ट ने शिक्षा के अधिकार कानून का उदाहरण देते हुए कहा कि कानून बना दिया गया लेकिन स्कूल कहां हैं। शिक्षक कहां से आएंगे। ढांचागत संसाधन नहीं हैं। कुछ जगह शिक्षा मित्र हैं जिन्हें 5,000 रुपये मिलते हैं जो बाद में समानता की मांग करते हैं। जब ऐसे मामले कोर्ट में आते हैं तो सरकार बजट की कमी बताती है।
जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ ने बुधवार को कहा कि शिक्षा का अधिकार कानून अदूरदर्शिता का सटीक उदाहरण है। योजनाओं को समग्रता से नहीं देखने पर यह जुमला बनकर रह जाएंगी। जब ऐसे मामले अदालतों में आते हैं, तो सरकार बजट की कमी का हवाला देती है। उन्होंने कहा, कृपया इस दिशा में काम करें, अन्यथा ये महज जुमले बन जाएंगे। पीठ देशभर में महिलाओं के संरक्षण के मद्देनजर बनाए गए घरेलू हिंसा अधिनियम के बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर अंतर को भरने की मांग से जुड़ी याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
याचिका में कहा गया है, इस अंतर को भरने की जरूरत है, जिससे कि दुर्व्यवहार का सामना करने वाली महिलाओं को प्रभावी कानूनी सहायता प्रदान की जा सके। याचिका में कानून के तहत शिकायत दर्ज कराने के बाद ऐसी महिलाओं के लिए आश्रयगृह बनाने की भी मांग की गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा कि आपको इस पहलू को संपूर्णता से देखना चाहिए। सरकार इस दिशा में काम करे अन्यथा यह सिर्फ जुबानी दावे ही रह जाएंगे। ये टिप्पणियां बुधवार को जस्टिस यूयू ललित ने घरेलू हिंसा कानून में बताए गए ढांचागत संसाधन जैसे प्रोटेक्शन अधिकारी की नियुक्ति आदि पूरे देश में उपलब्ध कराने की मांग पर सुनवाई के दौरान कीं। जस्टिस ललित तीन सदस्यीय पीठ की अगुवाई कर रहे थे। पीठ में जस्टिस एस.रविन्द्र भट्ट और जस्टिस पीएस नरसिम्हा भी शामिल थे।
केंद्र सरकार से दो हफ्ते में रिपोर्ट देने को कहा
कोर्ट ने पाया कि केंद्र सरकार ने रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कुछ और समय की मांग की है। लिहाजा केंद्र को दो हफ्ते में रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कहा है। अगली सुनवाई 26 अप्रैल को होगी। पीठ ने इससे पहले संरक्षण अधिकारी नामित करने की प्रथा को खारिज कर दिया था।
संरक्षण अधिकारियों की कमी से योजना पर असर
पीठ ने 25 फरवरी को मामले की सुनवाई के दौरान पाया था कि कई राज्यों ने अधिनियम के तहत राजस्व अधिकारियों या आईएएस अधिकारियों को ह्यसंरक्षण अधिकारीह्ण के रूप में नामित करने के लिए चुना था। कोर्ट ने कहा था कि यह कानून निमार्ताओं की मंशा नहीं थी, क्योंकि ऐसे अधिकारी इस काम को करने के लिए अपेक्षित समय नहीं दे पाएंगे। कोर्ट ने यह भी पाया था कि कुछ राज्यों में संरक्षण अधिकारियों की संख्या कम है। इसके बाद कोर्ट ने केंद्र सरकार से हलफनामा दायर कर इस संबंध में विस्तृत जानकारी देने के लिए कहा था।