आखिर क्यों ‘मण्डलम’ के बाद ही होते है भगवान सबरीमला के दर्शन, क्या है इसके पीछे की दिलचस्प कहानी
भगवान सबरीमला के दर्शन के लिए भक्तों को काफी लंबा इंतजार करना पड़ता है। लेकिन सिर्फ इंतजार मात्र से काम नहीं चलता है। यहां दर्शन के लिए श्रद्धालुओं को काफी मेहनत भी करनी पड़ती है।
धर्म डेस्क : दक्षिण भारत के केरल राज्य में स्थित भगवान सबरीमला का प्रसिद्ध मंदिर अपने साथ कई तरह के इतिहास को जोड़े हुए है। ये मंदिर सबरीमला पहाड़ पर स्थित एक महत्वपूर्ण मंदिर परिसर है। ये विश्व के सबसे बड़े तीर्थस्थलों में से एक है। इस मंदिर में दर्शन के लिए हर साल भक्तों का तांता लगा रहता है। यहां हर साल 4 से 5 करोड़ श्रद्धालु दर्शन के लिए आते है। ये मंदिर भगवान अय्यप्पन को समर्पित है।
सबरीमला शैव और वैष्णवों के बीच की एक अद्भुत कड़ी है। वास्तव में ये स्थान सह्याद्रि पर्वतमाला से घिरे हुए पथनाथिटा जिले में स्थित है। ये मंदिर घने वनों के बीच स्थित है।
कब और कैसे होते है दर्शन
इस मंदिर में आने से पहले श्रद्धालुओं को 41 दिनों के कठिन व्रत से गुजरना पड़ता है। इस व्रत अनुष्ठान को 41 दिनों का ‘मण्डलम’ कहा जाता है। जिसके बाद तीन दिनों के लिए मंदिर को बंद कर दिया जाता है। जिसके बाद चौथे दिन मंदिर को दर्शन के लिए खोला जाता है। श्रद्धालुओं के लिए ये मंदिर नवंबर से जनवरी तक ही खुला रहता है। इतना ही नहीं इस मंदिर तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को पैदल यात्रा भी करनी पड़ती है। यह मंदिर 18 पहाड़ियों के बीच स्थित है। वहीं इस मंदिर प्रांगण में पहुंचने के लिए 18 सीढ़ियों को भी पार करना पड़ता है।
18 सीढ़ियों की मान्यता
सबरीमला मंदिर तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को 18 पावन सीढ़ियों को पार करना पड़ता है। इन सीढ़ियों को अलग-अलग भाव से जोड़ा गया है। पहली पांच सीढियों को मनुष्य की पांच इन्द्रियों से जोड़ा गया है। इसके बाद की 8 सीढ़ियों को मानवीय भावनाओं से जोड़ कर देखा जाता है। इसके बाद अगली तीन सीढियों को मानवीय गुण से जोड़ा जाता है और इसके बाद अंतिम दो सीढ़ियों को ज्ञान और अज्ञान से जोड़ा जाता है।
मान्यता
कंब रामायण, महाभागवत के अष्टम स्कंद और स्कंद पुराण में शिशु शास्ता के बारे में लिखा है। जिन्हें मोहिनी और शिव का बेटा कहा जाता है। कहा जाता है कि अयप्पा उन्हीं के अवतार हैं। इन्हें हरिहरपुत्र, अयप्पन, शास्ता, मणिकांता नाम से भी जाना जाता है।
उम्र और रंग की मान्यता
मान्यता के मुताबिक, भगवान अयप्पा ब्रह्मचारी हैं। ऐसे में मेंशुरेशन को ध्यान में रखते हुए महिलाओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित है। इसी को ध्यान में रखते हुए 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को छोड़कर सभी पुरुष और महिला मंदिर में जा सकते हैं।
काले रंग के कपड़ों का महत्व
मंदिर में एक ड्रेस कोड भी है, जिसके पीछे भी तर्क है। मंदिर में सिर्फ काला वस्त्र पहन कर जाया जा सकता है, जिस पर कहा जाता है कि काला रंग खुशियों के त्याग का प्रतीक है और हर जाति-धर्म के लिए अयप्पा बराबर हैं।
मंदिर का निर्माण
मान्यता है कि भगवान परशुराम ने अय्यपा की पूजा के लिए सबरीमाला में मूर्ति की स्थापना की थी। कुछ लोग राम भक्त शबरी से तो खी लोगों का मानना है कि 700 से 800 साल पहले शैव और वैष्णव संप्रदाय के लोगों के बीच मतभेद बहुत बढ़ गए थे। तब उन मतभेदों को दूर करने और धार्मिक सद्भाव बढ़ाने के उद्देश्य से अयप्पा की परिकल्पना की गई थी। इसे मिसाल के तौर पर देखा जाने लगा कि यहां सभी पंथ के लोग आ सकते हैं।
क्या है पोटली का महत्व
यह भी कहा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति तुलसी या रूद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर, सिर पर नैवेद्ध से भरी पोटली (इरामुडी) लेकर यहां पहुंचे, तो उसकी मनोकामना जरूर पूरी होती है। माला धारण करने पर भक्त स्वामी कहलाने लगता है और तब ईश्वर और भक्त के बीच कोई भेद नहीं रहता। वैसे श्री धर्मषष्ठ मंदिर में लोग भारी संख्या में आते हैं। जो व्यक्ति इन समूहों का नेतृत्व करता है, उसके हाथों में इरामुडी रहती है। पहले पैदल मीलों यात्रा करने वाले लोग अपने साथ खाने-पीने की वस्तुएं भी पोटलियों में लेकर चलते थे। पहले दर्शनार्थियों में यही प्रचलन था। अब ऐसा नहीं है, पर भक्ति भाव वही है। लेकिन आज भी उसी भक्ति भाव के साथ यहां करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। कुछ वर्ष पहले नवंबर से जनवरी के बीच यहां आने वाले लोगों की संख्या पांच करोड़ के करीब पहुंच गई है।
श्रद्धालुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी
बोर्ड श्रद्धालुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी लेता है। वह तीर्थयात्रियों का निःशुल्क दुर्घटना बीमा करता है। इस योजना के अंदर चोट लगने या मृत्यु होने पर श्रद्धालु या उसके परिजनों को एक लाख रुपये तक दिए जाते हैं। इसके अलावा बोर्ड के या सरकारी कर्मचारियों के साथ अगर कोई हादसा होता है, तो उन्हें बोर्ड डेढ़ लाख रुपये तक देता है।