यदि हम आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी की भयावह तस्वीर याद करते हैं तो हमें यह भी याद रखना होगा कि उस समय देश में अनाज की भारी किल्लत थी और इसमें मदद करने में सक्षम बड़े राष्ट्रों ने एक तरह से यह शर्त रख दी थी कि यदि भारत को अनाज चाहिए तो उसे जनसंख्या पर नियंत्रण करना होगा।
एक तपती दोपहरी की बात है। स्कूल का दौर था। गरमियों की छुट्टियों के बीच एक परिवार पंखे की ठंडी हवा के बीच इधर-उधर की बातचीत कर रहा था। मैं भी वहां मौजूद था। एक परिचित कुछ तेज कदमों से घर में आए। उनके चेहरे पर व्यग्रता साफ़ दिख रही थी। कंधे पर टंगा कपड़े का झोला उतारने के पहले उन्होंने कहा, ‘संजय गांधी की डेथ हो गयी है।’ सभी यकायक चुप हो गए। परिवार की मुखिया महिला ने कुछ हंसते हुए कहा, ‘संभल कर मजाक कर, वरना पुलिस उठाकर ले जाएगी और फिर तू कभी-भी शादी करने के लायक नहीं रह जाएगा।’
लेकिन यह मजाक नहीं था। यदि मजाक होता तो फिर उस महिला के कथन से भी पूरी तरह असहमति नहीं जताई जा सकती थी। क्योंकि तब तक आपातकाल को ख़त्म हुए बहुत लंबा समय नहीं हुआ था। इससे भी बड़ी बात यह कि उस महिला के ऐसा कहने के समय संजय की मां इंदिरा गांधी एक बार फिर प्रधानमंत्री बन चुकी थीं। यह साबित करते हुए कि उस समय देश को चलाने के लिए खुद इंदिरा और कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं है। वही कांग्रेस, जिसकी सरकार में प्रधानमंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी ने 1975 से 1977 तक के लिए देश में आपातकाल लगा दिया था। वही आपातकाल, जिसमें हजारों लोगों की जबरिया नसबंदी सहित उन्हें दी गयी तमाम अमानवीय तकलीफों के लिए संजय गांधी को मुख्य रूप से दोषी बताया गया था।

अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में संजय गांधी ने जो कुछ भी किया, उसकी ख्याति की कम चर्चा होती है। फिर गांधी को कुख्यात करने के लिए आपातकाल से जुड़े कई सच्चे और कई झूठे किस्से तो मौजूद हैं ही। यह भी विचित्र बात ही रही कि संजय उस दिन विमान उड़ाते हुए हादसे में काल कवलित हो गए, जब इमरजेंसी की पांचवीं बरसी आने के लिए केवल दो दिन बचे थे।
कांग्रेस की राजनीति में संजय ने अपने इर्द-गिर्द विश्वसनीय लोगों की एक पूरी टुकड़ी खड़ी कर रखी थी। कई ऐसे लोग रहे, जो संजय के विश्वासपात्र बनने के बाद से लेकर हमेशा तक जनाधार के नाम पर शून्य में ही जीते रहे, लेकिन गांधी के आशीर्वाद के चलते वह फिर भी राजनीति में जीतते ही रहे। लेकिन संजय के निधन के बाद इनमे से अधिकांश लोगों ने उनकी स्मृति से खुद के जुड़ाव को अलग करने में ही समझदारी महसूस की।

मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ संजय के घनिष्ठ दोस्तों में शामिल रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद नाथ ने न केवल संजय से अपने ताल्लुकात पर गर्व जताया, बल्कि सार्वजनिक तौर पर उनके साथ वाली वो तस्वीरें भी सामने लाने का काम किया, जो बहुत समय से किसी ने नहीं देखी थीं। बाकी संजय ब्रिगेड के लगभग और किसी भी सदस्य ने नाथ जैसा साहस नहीं दिखाया। इन्हीं में विद्याचरण शुक्ल का भी नाम है, जो आपातकाल के समय संचार और समाचार माध्यमों के बीच खलनायक के रूप में देखे गए और जिन्होंने बाद में कांग्रेस छोड़कर कई दलों की सवारी की तथा फिर संजय का जयकारा तो दूर, उनका नाम तक शुक्ल की जुबान पर कभी नहीं आया।
अपने निधन के बाद के चालीस साल से अधिक समय तक अपयश झेल रहे संजय मेरे विचार से सही और निरपेक्ष रूप में समझने और समझाए जाने का हक रखते हैं। मसलन यदि हम आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी की भयावह तस्वीर याद करते हैं तो हमें यह भी याद रखना होगा कि उस समय देश में अनाज की भारी किल्लत थी और इसमें मदद करने में सक्षम बड़े राष्ट्रों ने एक तरह से यह शर्त रख दी थी कि यदि भारत को अनाज चाहिए तो उसे जनसंख्या पर नियंत्रण करना होगा।

इमरजेंसी में ही दिल्ली से अतिक्रमण हटाने के काम को संजय पर ‘गरीबों के आशियाने उजाड़ने’ की तोहमत के रूप में मढ़ा गया। हालांकि यह भी कहा जाता है कि यह इमरजेंसी में सरकार को मिली ताकत का ही असर था कि संजय उन जगहों से अवैध निर्माण हटा सके, जहां इससे पहले तक पुलिस भी जाने की हिम्मत नहीं कर सकती थी। यह भी याद रखना होगा कि इमरजेंसी के दौरान ही देश के सबसे बड़े औद्योगिक हब के रूप में नॉएडा ने आकार लिया था। यह संजय का ड्रीम प्रोजेक्ट था, जिसमें उत्तर प्रदेश के उस समय के कांग्रेसी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने मदद की थी।
आपातकाल के दौरान यदि संजय के पांच-सूत्रीय कार्यक्रम पर गौर करें तो शायद उन पर अब कुछ ‘रहम’ की गुंजाइश दिखती है। क्योंकि इन कार्यक्रमों में दहेज़ और जाति प्रथा का उन्मूलन और पूरे देश को शिक्षित करने वाले लक्ष्य भी शामिल थे। यह उस समय की बहुत बड़ी जरूरत थीं और आज के लिहाज से तो यह देश की सबसे बड़ी जरूरतें बन चुकी हैं।
यहां आपातकाल या उस समय के संजय को जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं हो रही है। क्योंकि जो अनाचार उस समय हुए, उनके भुक्तभोगी भारत की काली तस्वीर को कोई भी बिसरा नहीं सकता है।
(ग्राफ़िक- प्रफुल्ल तिवारी)