शख्सियत

कैनवास पर कपूर की अमिट यादों का राज़

2 जून, 1988 को अंतिम सांस लेने वाले राज कपूर (Raj Kapoor) स्वयं को कुछ भरे-कुछ खाली कैनवास की तरह हमें सौंप गए हैं। इस कैनवास के भरे हिस्से में सन 1948 की ‘आग’ से लेकर 1985 की ‘राम तेरी गंगा मैली’ (Ram Teri Ganga Maili) वाले उनके निर्देशन में बनी फ़िल्में हैं। इसी पर उनके अभिनय वाले चित्र भी शामिल हैं। अलबत्ता अभिनय कभी भी कपूर का मजबूत पक्ष नहीं रहा। मुख्य भूमिकाओं में इस मामले में उनके समकालीन देव आनंद (Dev Anand) और दिलीप कुमार (Dilip Kumar) भारी पड़े। संजय खां की ‘अब्दुल्लाह’ (Abdullah) में मुख्य चरित्र के माध्यम से राज के लिए अभिनय की धाक स्थापित करने की पूरी गुंजाइश थी। हालांकि इसी फिल्म में डैनी (Danny) ने खलील और बॉब क्रिस्टो ने जादूगर की भूमिकाओं में जादू फूंककर कपूर को काफी हद तक इस अवसर से भी वंचित कर दिया था।
कपूर के अभिनय को गौर से देखें तो लगता है कि विशेषकर गंभीर दृश्यों में दम लाने के लिए उन्हें अपनी चेहरे को कई कोण से इधर से उधर ले जाने की खासी मशक्कत करना पड़ती थी। लेकिन निर्देशन (घोषित और अघोषित) में तो मामला पूरी तरह उलट और अद्भुत था। उनकी फिल्मों के अधिकांश दृश्य देखते समय आप साफ़ महसूस कर सकते हैं कि उस फिल्मांकन के समय कैमरा राज कपूर के हाथ में छिपे जादू के सुखद असर में डूबा हुआ था। ‘आग’ को गौर से देखिए। आप पाएंगे कि बतौर निर्देशक अपने इस पहले चित्र में कपूर ‘आग’ से दो साल बड़ी चेतन आनंद (Chetan Anand) की ‘नीचा नगर’ (Neecha Nagar) और इससे सात साल छोटी सत्यजीत रे (Satyajit Ray) की ‘पाथेर पांचाली’ (Pather Panchali) वाले उत्कृष्टता के मापदंडों को छू रहे हैं। लेकिन फिर क्या हुआ, जो ‘आह’ में कपूर का निर्देशन के परफेक्शन के प्रति ‘आग’ जैसा जूनून नजर नहीं आ सका? क्या ऐसा इसलिए हुआ कि ‘आह’ में कपूर अघोषित और राजा नवाथे घोषित रूप से निर्देशक थे? इन दो चित्रों के बीच बनी ‘बरसात’ में ऐसा क्या हुआ कि ‘आग’ वाली कपूर के भीतर की आग बुझ गयी? ‘बरसात’ की सफलता का पैमाना मुख्यतः उसका ‘म्यूजिकल लव स्टोरी’ होना रहा। हाथ में वायलिन थामे राज और उनकी आगोश में हरेक भावना समर्पित करने की जुस्तजू के साथ समायी नरगिस (Nargis Dutt) वाले उस कालजयी दृश्य ने भी इस फिल्म को सुपर हिट बना दिया। क्या इसलिए ही ऐसा हो गया कि कपूर ने इन दो फैक्टर्स की बैसाखी पर अपनी निर्देशकीय प्रतिभा के उरूज को यूं ही लटक जाने दिया था? हां, छनती रोशनी के दरमियान फिल्माए गए सदैव के लिए रोशन होने गए दृश्यों वाली अपनी प्रतिभा के साथ कपूर ने शायद अपनी किसी भी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में समझौता नहीं किया। फिर ‘आवारा’ की ड्रीम सीक्वेंस तो सचमुच कपूर को आज तक एक युग का ग्रेट शोमैन बनाए हुई है। ‘श्री 420’ तक आते हुए कपूर ने शायद खुद को निर्देशक की बजाय किसी दार्शनिक में ढाल लिया था। फिल्म की खूबी का पैमाना ऐसे संवादों पर ही टिका दिखता है, जिनमें कपूर कभी कटाक्ष तो कभी ग़मगीन संवादों के जरिये दर्शकों तक जीवन के विभिन्न सन्देश प्रसारित करने की कोशिश करते हुए दिखते हैं।
‘संगम’ (Sangam) की अपार सफलता वाले तत्व को ध्यान में रखते हुए भी इस चित्र को सफल कहने में हिचक होती है। लोग इस चित्र को देखने के लिए टॉकीज में टिकट खिड़की के सामने रात से ही बिस्तर बिछा कर सोते थे। बचपन में कई लोगों से सुनी गयी यह बात मुझे विश्वास दिलाती रही कि यकीनन ‘संगम’ ने उल्लेखनीयता के नए मापदंड स्थापित किये होंगे। हालांकि इस फिल्म को देखने के साथ ही यह भ्रम दूर हो गया। उसकी जगह इस विश्वास ने ले ली कि टॉकीज के बाहर सो रहे लोग उस सुबह का ही सपना देखने में मगन रहते होंगे, जब वह ‘संगम’ में भीगे बदन वाली नायिका को स्विमिंग सूट में देख सकेंगे। बाकी तो इस फिल्म में कथानक से लेकर फिल्मांकन या निर्देशन का ऐसा कोई काम ही नहीं था, जो टिकट खिड़कियों के बाहरी हिस्से को किसी रैन-बसेरे में तब्दील कर देने की क्षमता रखने वाले कहे जा सकें। बहुत तकलीफ होती है यह सच स्वीकारने में कि ‘मेरा नाम जोकर’ (Mera Naam Joker) की घोर असफलता के बाद कपूर को एक बड़ी सफलता के लिए ‘बॉबी’ (Bobby) में ‘संगम’ वाले नायिका के भीगे बदन को टू पीस बिकिनी वाले स्तर तक और नीचे लाना पड़ गया था।
‘जोकर’ यकीनन सदी की सर्वाधिक हिट फिल्मों में गिनी जाती, बशर्ते उसका हर दर्शक अपने आप में एक-एक राज कपूर होता। इस चित्र में कपूर अपने विचार के संचार की रौ में कुछ ऐसा बह गए कि दर्शक उनसे पीछे छूटते चले गए। ‘जोकर’ को गहराई से देखने पर साफ़ है कि कपूर इसमें ‘आग’ से लेकर ‘बरसात’ और ‘श्री 420′ वाले उत्कृष्ट प्रयोगों को दोहराना चाह रहे थे। लेकिन एक साथ कई नावों की यह सवारी उन्हें ले डूबी। हालांकि ताज्जुब है कि इसी तरह की सवारी के दम पर कपूर सत्यम, शिवम, सुंदरम’ और ‘राम तेरी गंगा मैली’ में ‘जोकर’ की घनघोर असफलता वाले मैल को पूरी तरह साफ़ करने में सफल रहे। यह बेहिचक कहा जा सकता है कि इन दोनों चित्रों में उन्होंने नायिका की बेचारगी और उसकी मादकता को कुछ ऐसा संतुलन प्रदान किया वह नायिका को देखकर आंख में आंसू या मुंह में पानी लाने वाले, दोनों ही श्रेणी के दर्शकों को साधने में सफल रहे।बाकी ‘राम तेरी..’ में कपूर के निर्देशन की श्रेष्ठता वाली पवित्र ‘आग’ तो उस झरने के पानी में बुझ गयी, जिसमें नहाती अर्द्ध नग्न नायिका का चित्र आज भी इस फिल्म के पोस्टरों पर राज कपूर के नाम और काम, दोनों पर भारी नजर आता है। अलबत्ता यह संतोष की बात है कि राज कपूर नामक उस कैनवास पर तमाम ‘किन्तु-परन्तु’ वाले तत्वों के बीच भी कोई भी बात कपूर से अधिक भारी नजर नहीं आती है। यही उनकी अमिट यादों वाली सफलता का राज़ है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button