सियासी तर्जुमा

उफ…मद्य प्रदेश के ये सच

नब्बे के दशक में एक फिल्म देखी थी, ‘यहां से शहर को देखो।’ कहानी में निगरानीशुदा बदमाश गरीबी के बावजूद शराफत की जिंदगी बिताना चाहता है। लेकिन दो पुलिस वाले उसे पूछताछ के नाम पर पकड़कर उससे पैसे की मांग करते हैं। इसके लिए उसके पास फिर चोरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। वो चोरी की कोशिश करते गिरफ्तार कर लिया जाता है। तो ऐसा ही कुछ मध्यप्रदेश की बजाय मद्यप्रदेश बनते हमारे राज्य में भी हो रहा है। मुरैना में जहरीली शराब का मामला इसकी ताजा बानगी है।

लंबे लॉकडाउन के दौरान ऐसी घटनाओं को यह कहकर टाल सकते हैं कि उस दौरान दुकानें बंद थी और शराब पीने वालों को मुहैया नहीं हो रही थी। लेकिन अब तो देशी-विदेशी सारी शराब दुकानें खुली पड़ी है फिर लोग जहरीली शराब पीकर क्यों मर रहे हैं? जाहिर है गलत से गलत काम भी कुटीर उद्योगों की शक्ल में ही पनपता है। तस्करी की दारू से लेकर जहरीली दारू के मामले में भी ऐसा ही होता है। इन कामों में जितना अधिक मुनाफा होता है, हिस्सेदारी भी उतनी ही ज्यादा बटती है। निचली पायदान से लेकर ऊपर तक हिस्सा-बांट होती है। गलत करने वालों से लेकर गलत को रोकने की जिम्मेदारी के नाम पर खाकी या खादी डटाए लोग श्रम विभाजन के इस घिनौने रूप में अपने-अपने प्रभाव के लिहाज से कीमत वसूलने के भागीदार होते हैं। उज्जैन में बीते दिनों जहरीली शराब की बिक्री में जिस तरह के चेहरे उजागर हुए थे, मुरैना में भी वैसा ही सामने आना तय है। बशर्ते कि मामला कलेक्टर, एसपी को हटाने या कुछ लोगों को निलंबित करने तक ही सिमट कर न रह जाए। इस मामले में भी एसआईटी बना दी गई है लेकिन उज्जैन के मामले में बनी एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट में क्या कहा था और उस पर क्या कदम सरकार ने उठाए, आज तक तो किसी को पता नहीं है।

नि:संदेह शराब बुरी है, लेकिन वह कई महती जरूरतों की धुरी भी है। सरकार को राजस्व के लिए इसकी बिक्री की दरकार है। पीने वालों की जरूरत का तो खैर फिर कहना ही क्या। मध्यप्रदेश में इसकी कीमतों में जिस तरह आग लगाई गई है, उससे हुआ यह है कि गरीब तलबगारों के लिए सस्ती या अवैध शराब के रूप में अपनी जान से खिलवाड़ करना आम बात हो चली है। पूर्व मुख्यमंत्री रहे सुंदरलाल पटवा और दिग्विजय सिंह ने अपने समय में एक शराब कंपनी के कार्यक्रम में कामना की थी कि उनका कारोबार बढ़े, ताकि सरकार को भी लाभ होता रहे। अनर्थ वाले सामान से अर्थव्यवस्था के संचालन की यह सस्ती शराब जैसी ही कड़वी सच्चाई है। फिर इसका महत्व उस समय और भी बढ़ जाता है, जब सोमरस वाली लॉबी सियासी दलों और उसके नेताओं की जेब भरने का भी बड़ा जरिया बन जाती है। धंधा चमकाना है तो कालिख छिपाए कई चमकते चेहरों को भी उपकृत करना ही होता है। बस यही कड़ी गलत की खरपतवार को जन्म देकर पूरे समाज पर छाती चली जा रही है। जिस जगह शराब निर्माण के लिए लायसेंस से लेकर उसके उत्पादन और बिक्री तक में कई रसूखदारों से लेकर व्यवस्था के अन्य हिस्सों का कमीशन तय हो, वहां या तो महंगी या फिर जहरीली शराब के जरिये ही इस धंधे से जुड़े लोग अपने शुभ-लाभ की ही चिंता करेंगे, जिसके नतीजे इसी शक्ल में सामने आते रहेंगे। ईमानदारी की कमाई तो कोई भी लुटाने से रहा।

सरकारें हों या राजनीतिक दल, सभी में शराब की व्याख्या एक सामाजिक बुराई के रूप में करने का चलन खासा लोकप्रिय है। इस बुराई को शराब की कीमतें बढ़ाने भर से दूर नहीं किया जा सकता, ना शराबबंदी से। बिहार में शराबबंदी लागू हुई तो कई लोग जहरीले पदार्थों का सेवन करके मर गए। आज तक वहां या गुजराज जैसे राज्य में अवैध शराब के मामले रोजाना सामने आते हैं। यदि यह पदार्थ महंगा होता है तो इसके तलबगार या तो इसकी कीमत चुकाने के लिए अपराध करते हैं या फिर वैकल्पिक नशे के तौर पर तत्काल मौत के सामान को गले लगा लेते हैं। लिहाजा शराब को सामाजिक बुराई के रूप में कुछ इस तरह सामने लाये जाने की जरूरत है, जिससे इसके खिलाफ जागरूकता का माहौल तैयार किया जा सके। लेकिन ऐसी कोई कोशिश कम से कम सरकारों को तो नहीं करना चाहिए। सामाजिक बुराईयों को दूर करने का जिम्मा समाज पर ही छोड़ना चाहिए। मगर दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है। इसी के दुष्परिणाम कभी जावरा, कभी उज्जैन तो कभी मुरैना के रूप में सामने आ रहे हैं। सुरा के आसुरी असर के कायम रहने में इन सभी फैक्टर्स का अहम खेल है। जिसकी तरफ दुर्भाग्य से जानबूझकर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मद्य प्रदेश के ऐसे सच किसी से छिपे नहीं हैं, लेकिन कोई उनकी तरफ ईमानदारी से ध्यान दें, तब ना।

Web Khabar

वेब खबर

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button