महाराष्ट्र की महाभारत में ‘उद्धव मन यूं भया दस-बीस’
सूरदास नेत्रहीन थे। फिर भी भगवान कृष्ण की लीलाओं का उन्होंने जो जीवंत चित्र खींचा, वह अद्भुत है।
आप भले ही महाराष्ट्र के ग्रेट इंडियन पॉलिटिकल थिएटर के भीतर के सच को देख पाने में स्वयं को ‘नेत्रहीन’ महसूस कर रहे हों, लेकिन सच का चित्र खींचना आपके लिए भी बहुत मुश्किल काम नहीं है।
बात तब की है, जब भगवान कृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियां उन्हें समझाने आए उधो जी से अपनी पीड़ा और विवशता प्रकट करती हैं। उसके लिए सूरदास ने गोपियों की तरफ से लिखा है, ‘उधो मन न भये दस-बीस…। ‘ इससे गोपियां यह कहना चाहती हैं कि उनका एक ही मन है और उसमें भगवान कृष्ण के अलावा और कोई नहीं आ सकता।
लेकिन ठाकरे के तो दस-बीस मन दिख रहे हैं। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र के सियासी महाभारत में मुख्यमंत्री ठाकरे जो अलग-अलग दांव खेलते दिख रहे हैं, वह एक मन वाली बात नहीं हो सकती।
उद्धव का एक मन गुवाहाटी में है। दूसरा निश्चित ही उस ‘वर्षा’ में होगा, जो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का आधिकारिक निवास है। राजनीतिक अंधड़ के बीच ठाकरे ने बुधवार को ‘वर्षा’ से दूरी बना ली। कहा जा रहा है कि इस तरह से उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ने का मन बना लिया है।
लेकिन मन तो मुख्यमंत्री पद में भी अटका हुआ है। उद्धव ने इस्तीफ़ा नहीं दिया है। कहा है कि एकनाथ शिंदे के साथ गुवाहाटी पहुंचे शिवसेना के विधायक आकर उनसे बात करें। बताएं कि उनकी किस बात को लेकर नाराजगी है। मुख्यमंत्री निवास छोड़ने और मुख्यमंत्री का पद छोड़ने के बीच जमीन-आसमान का अंतर है। और इसी जमीन तथा आसमान के बीच उद्धव के कई मन तैरते महसूस हो रहे हैं।
अब इस बात में ज्यादा संदेह की गुंजाइश नहीं रह गयी है कि ठाकरे इस सिचुएशन को भी अपने पक्ष में करने का मन बना चुके हैं। इसलिए बुधवार को जब उन्होंने कहा कि शिवसेना हिंदुत्व से अलग नहीं हो सकती तो यह साफ़ संकेत था कि भाजपा के लिए उनका मन फिर से पुराने ट्रेक पर जा रहा है, ताकि हालात को फिर पटरी पर लाया जा सके।
निश्चित तौर पर उद्धव मन ही मन यह गणित लगा चुके होंगे कि भाजपा के साथ फिर आकर सरकार बनाने में क्या नफ़ा-नुकसान हो सकता है। इस गणित के पहले सूत्र ने उस दिन ही आकार ले लिया था, जब बीते दिनों ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा किया था।
महाराष्ट्र के राजभवन में इसी 14 जून को जयभूषण भवन और क्रांतिकारियों की एक वीथिका के उदघाटन कार्यक्रम के लिए मोदी वहां पहुंचे थे। तब उद्धव भी उनके साथ थे। उस दिन बहुत लंबे अरसे के बाद एक साथ, एक ही मंच पर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को देख कर अटकलों का बाजार गर्म हो गया था।
इसके कुछ ही समय बाद एकनाथ शिंदे अपने समर्थकों के साथ पहले गुजरात और फिर वहां से असम पहुंच गए। शिंदे से लेकर उनके समर्थक खुलकर सरकार में गठबंधन सहयोगी शरद पवार और उनके कोटे वाले मंत्रियों पर आरोप लगा रहे हैं। वे सरकार की हिस्सेदार कांग्रेस को भी कोस रहे हैं।
इन आरोपों को लेकर उद्धव के मन में क्या चल रहा है, यह कहना मुश्किल है। हां, यह पूरी आसानी से कहा जा सकता है कि उद्धव ने ऐसे आरोपों को लेकर पवार या कांग्रेस के बचाव में कुछ बोला नहीं है।
शरद पवार और कांग्रेस भी ऐसे आरोपों पर चुप हैं। अलबत्ता कांग्रेस की तरफ से डैमेज कंट्रोल के लिए मुंबई पहुंचे वरिष्ठ नेता कमलनाथ ने कुछ तल्खी दिखाई। उन्होंने कहा कि शिवसेना अपने विधायकों को संभाले, बाकी कांग्रेस के विधायक बिकाऊ नहीं हैं। हालांकि नाथ ने यह बात तब कही, जब शिंदे गुट ने पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस पर खुलकर हमला नहीं बोला था। लेकिन ऐसा लगता है कि नाथ ने यह बात कहकर जहां कांग्रेस का बचाव करने की कोशिश की, वहीं यह सवाल भी हवा में उछाल दिया कि ‘फिर बिकाऊ कौन है?’
गौर से देखा जाए तो साफ़ है कि इस समय महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के लिए विचार तो दूर, सांसों पर भी बंदिश लगी हुई है। क्योंकि वह जानते हैं कि भाजपा के दरवाजे सपाट रूप से ठाकरे के लिए खुले हुए हैं और सत्ता में बने रहने के लिए ठाकरे भी अपना मन बदल सकते हैं।
फिर उद्धव का मन इस बात में भी निश्चित ही लगा हुआ होगा कि सरकार जाने या बनी रहने का उनके बेटे आदित्य ठाकरे के राजनीतिक भविष्य पर क्या असर होगा। आदित्य को शिवसेना में पिता उद्धव के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाता है । यदि यह सरकार गयी और उद्धव को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा तो आदित्य के राजनीतिक करियर में यह एक बड़ा झटका साबित हो सकता है।
एकनाथ शिंदे और उनके समर्थक जिस तरह से रह-रहकर शिवसेना तथा इसके संस्थापक बाला साहब ठाकरे के लिए अपने समर्पण की कसमें खा रहे हैं, उससे यह स्पष्ट है कि मामला खालिस रूप से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के विरोध का है। ऐसा विरोध, जिसमें उद्धव को तब-तक बहुत बड़ी असुविधा नहीं होगी, जब तक कि यह साफ़ दिखता रहे कि भाजपा सदन में बहुमत कायम रखने में ठाकरे की मदद से पीछे नहीं हटेगी। जिस तरह बिहार में लालू यादव से छिटककर भी नीतीश कुमार फिर भाजपा की दम पर मुख्यमंत्री बने रहे, वह प्रयोग महाराष्ट्र में भी तो दोहराया ही जा सकता है।
अब उद्धव के एक मन बनाने की देर है। या तो वह इस्तीफ़ा दे दें या फिर एकनाथ गुट की मंशा और भाजपा के मंसूबों के अनुरूप अपने वर्तमान सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तथा कांग्रेस से नाता तोड़ लें। बहुत जल्दी तस्वीर साफ हो सकती है, लेकिन तब तक उद्धव को उनके दस-बीस हो रहे मन को एक करने का समय तो दीजिए।
(ग्राफ़िक- प्रफुल्ल तिवारी)