सियासी तर्जुमा
अब फिर कभी न हो यह सब

तो चलिए कि इस इतवार का भी सूरज आखिरकार डूब ही गया। वो सारी चिल्ल्पों थम गई, जिसने बीते कुछ दिनों से मानो जीना हराम कर रखा था। वह सब तमाम नाटक रुक गए, जिनके चलते कान आए दिन उनके भीतर गरम सीसा भर दिए जाने जैसी असहनीय तकलीफ से दो-चार हो रहे थे। इस रविवार के सूरज का उदय इस गर्व से भर गया कि मध्यप्रदेश की स्थापना के 65 साल पूरे हो गए हैं। और आज के ही सूरज के अस्तांचल में जाने के साथ ये बाद एक इच्छा मन में पूरी तड़प के साथ अंगड़ाई ले रही है। वह यह कि बीते कुछ दिनों से राजनेताओं के जिस तरह के आचरण को सहा, वह अब फिर कभी और न होने पाए
अपने स्थापना दिवस से लेकर अब तक मध्यप्रदेश के किसी भी चुनाव में इतना विषवमन नहीं हुआ, जितना 28 सीटों के मामले में देखने मिला है। मयार्दाएं तोड़ने की तो जैसे इस दौरान होड़ मची रही। न कोई राजनीतिक दल इसमें पीछे रहा और न ही इन पार्टियों के दिग्गज भी खुद को इस कीचड़ वाले युद्ध से अलग रख सके। हर तरफ ‘दाग अच्छे हैं’ जैसा दागदार माहौल बनाया और उसे कायम रखा गया। ‘कमीना’ और ‘आयटम’ की गूंज ने एकबारगी इस भय से भी कांपने पर मजबूर कर दिया कि राज्य का चुनावी माहौल बिहार, उत्तरप्रदेश या पश्चिम बंगाल जैसा होता जा रहा है।