शख्सियत

‘अजगर करे न चाकरी’ वाले संत को कितना जानते हैं आप ?

मध्य युगीन (Medievel) हिन्दी साहित्य (Hindi Literature) में सन्त परम्परा (Saint tradition) की अन्तिम कड़ी के रूप में प्रसिद्ध सन्त शिरोमणि मलूक दास (Saint shiromani Malook Das)के दोहे मानवीय मूल्यों को स्थापित करने तथा सामाजिक समरसता (Social Harmony) को बनाये रखने में आज भी बहुत प्रासंगिक है।

सन्त मलूक दास का जन्म पुरातन में वत्स (Vats) देश की राजधानी रही वर्तमान कौशाम्बी (Kahshambi) जिले के ऐतिहासिक स्थान ‘कड़ा’ में सम्वत 1631 में वैशाख बदी पंचमी को हुआ था। 108 वर्ष का लम्बा जीवन जीकर इस सन्त ने वैशाख बदी चतुर्दशी सम्वत् 1739 को इस संसार से महा प्रयाण किया। भक्ति भावना से अभिभूत अपनी जिन अभिभूतियों को इस सन्त ने पदनात्मक रूप मे गाया। वे दाेहे इतने लोकप्रिय साबित हुए कि दूर दूर तक कुछ भी न जानने वाले किसान मजदूरों से भी उन्हे आज भी सुना जाता है।

अजगर करे न चाकरी पंछी करै न काम । दास मलूका कह गए सब का दाता राम ।। मलूकदास का यह दोहा समपूर्ण विश्व मे अपनी सारगर्भिता को लेकर साहित्यकारों के बीच कौतुहल का विषय बना हुआ है। उपरोक्त दोहे को लेकर लोग इस संत को न केवल याद करते हैं । बल्कि उनकी स्मृति को अपने जेहन मे सहेज कर रखे हुए हैं।

मलूकदास के इस दोहे को अनेक हिन्दी विद्वानाे ने अकर्मण्यता से पुरित बताया । आचार्य राम चन्द्र शुक्ल (Acharya Ramchandra Shukl) ने तो इसे काहिलों का मूलमंत्र बताया है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी (Acharya Parashura Chaturvedi) ने इस दोहे को घाेर भाग्यवादी रचना के रूप मे स्वीकार करते है। लेकिन इस दोहे मे प्रयुक्त होने वाले शब्दों का अभिप्राय केवल अजगर और पंछी से नही है।उसके साथ मलूक भी जुड़े हुए है। अजगर की अकर्मण्यता पंछी की योगयता मनुष्य की कार्यशीलता का पृथक पृथक अस्तित्व इस जगत मे है। लेकिन परमात्मा की ओर से उनकी कृपा व दानशीलता मे कोई पक्षपात नही किया जाता ।

इस संत का समूचा जीवन दया और करुणा से ओत प्रोत रहा है। इसलिए आजीवन यह परोपकार एवं दीन दुखियो की सेवा व दुःख निवारण मे तल्लीन रहे । बाह्रा आडम्बरो पर विस्वास न करके दूसरे के दुखों और अभावोेें को गहराई से महसूस करते थे। भूखों को भोजन कराना‚सर्दी मे कंपकपाते गरीब साधू सन्तों को वस्त्र और कम्बल बाटना कडा गंगा स्नान करने वाले यात्रियों के मार्ग में पडे कंकड़‚पत्थरों को साफ करना उनकी नित्य की ईश्वर सेवा बन गई थी। पत्थर पूजने के बजाए वह दुःखी इन्सानों के दुःख निवारण को परमात्मा तक पहॅुचने का सुगम मार्ग मानते है।

‘भूखेहि टूक प्यासहि पानी ‚यहै भगति हरि के मन मानी ।

दया धरम हरिदे बसै बोले अमृत ‚तेई उँचे जानिए जिनके नीचे नैन ।।’

मलूकदास इस भौतिक संसार को निष्पल बताते हुए कहा कि यहाँ के सभी रिश्ते नाते झूठे हैं। सद गति के लिए राम से नाता जोडना चाहिए। ‘कह मलूक जब ते लियो ‚राम नाम की ओट ‚सावत हो सुखनींद भरि डारि भरम की वाेट।’

मलूकदास संसारिक सुखाें में आसक्त ने होने की सलाह देते हुए कहते है कि संसारिक वस्तुओं में क्षणिक सुख है लेकिन परोक्ष में दुःख बहुत है।

‘जेते सुख संसार के इकट्ठे किए बटोर‚कन शोरे कांकर घने देखा फटक पछोर।।’ मलूक ने धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्ड आडम्बरां भेद भाव और संघर्षो की भत्र्सना की तथा इंसान को इंसानियत से जोड़ने का प्रयास किया। हिन्दू और मुसलमानों को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास किया। उन्होने तीर्थाें में भ्रमण के बजाय मानव मात्र के पगति दया‚ धर्म अपनायें जाने नर जोर दिया।

मलूकदास अपने चम्ताकारिक व्यक्तित्व के कारण हिन्दू मुसलमान दोनो के प्रिय थे और दोनो उनका आदर करते थे । भारत के अलावा नेपाल (Nepal)‚अफ्गानिस्तान (Afghanistan) में उनके शिष्य थे । इस्लाम धर्मान्ध बादशाह औरंगजेब (Aurangzeb) स्वय इस संत के चरणों में नत मस्तक हो कड़ा जजिया कर (Jazia Tax) माफ कर दिया था तथा मलूक के कहने पर सिपाही फतेह खां को सिपह सलाहकार बना दिया था। लेकिन उक्त पद को ठुकराकर फतेह खां ने अपना सम्पूर्ण जीवन इस संत की सेवा में अर्पित कर दिया मरने के बाद फतेह खां की समाधि मलूक समाधि के पास स्थापित की गई जो वर्तमान में राष्ट्रीय एकता की बेमिसाल नमूना के रूप में कड़ा में स्थित है। अराण्य के पगति सम्पर्ण की भावना संतों में रही है। मलूक भी अपने अराध्य देव के प्रति पूर्ण समर्पित थे। उनकी निष्काम भक्ति का परिचय उनके निम्न दोहे से होती है। ‘माला जपौं न कर जपौं‚ जिम्या कहौ न राम सुमिरन मेंरा हरि करैं मैं पयों विश्राम।।’

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